मुकम्मल वख्त
जग कर भी सोने वाले इन्सान को जख्म कहाँ दिखते है ,
उम्मीद से जीने वाले ही राह चुनते है ,
मुकम्मल वख्त कब होता है ,
जीने वाले कभी नहीं थकते है
रात के सफ़र को सुबह होने तक संभलकर रखो ,
दीवानों जिंदगी को संभलकर रखो,
हर सुबह उजालों को संभलकर रखो,
मौन यूही वख्त करवट कब ले,
केदारनाथ को संभलकर रखो।
-------मनोज "मौन "
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